आशियाना


आशियाना( काश मेरा भी एक घर होता)



काश मेरा भी इक घर होता
मैं भी रहता अरमानों से 
नही फिर कोई बाहर करता
अपने ही आशियाने से

जिसको मैने अपना समझा 
वहां मैं केवल मेहमां था
पता चला मुझको आखिर में
मैं तो केवल तन्हां था

साथ जिसे समझा था अपने
साथ उन्ही ने तोड़ दिया
पकड़ के उंगली बड़ा हुआ था
हाथ उन्हीं ने छोड़ दिया

हर ठोकर से सीखा हमने
यह ठोकर भी सिखलायेगा
आज नही तो कल ही होगा
पर अपना भी दिन आएगा

साथ में लेकर क्या आये थे
क्या लेकर हमें जाना है
तुम भी मेहमां हम भी मेहमां
चंद सांसो का ही ठिकाना है

आज नही तो कल इस घर से
हम सबको भी जाना है
रहना है प्रभु के चरणों में
अंतिम वही ठिकाना है

पंकज कुमार झा
चित्तौड़गढ़
मोबाईल 9314121539

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